ट्रंप के हाथ अमेरिकी कमान से दुनिया में होंगे बड़े बदलाव, पिछले कार्यकाल में लिए थे कई अहम फैसले

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डोनाल्ड ट्रंप का पहला कार्यकाल विवादों से भरा रहा.उस दौरान चाहे नाटो संगठन हो या फिर अलग-अलग वैश्विक शक्तियां हो, उन सभी के बीच में हलचल की स्थिति रही. डोनाल्ड ट्रंप कभी भी कोई निर्णय ले लेते हैं या फिर नए प्रकार के प्रयोग भी करते हैं. इसका उदाहरण सबसे ताजाा है अचानक से पर्यावरण समझौते से अमेरिका से बाहर कर लेना. जबकि, पूरा मामला जलवायु परिवर्तन से संबंधित समझौते का था. उसका मुख्य कर्ता-धर्ता अमेरिका ही था. लेकिन उन्होंने उस समझौते से अमेरिका से बाहर कर लिया था. कई बार देखा गया है कि अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया (मित्र राष्ट्र वाले देश) इनके बीच में कई बार तनाव की स्थितियां उत्पन्न हो जाती है.

यानी, ट्रंप कब कौन-सा निर्णय लेंगे और किस रूप में लेंगे, इसका अंदाजा लगा पाना बहुत ही मुश्किल है. क्योंकि, उनके निकटतम सहयोगी के बीच में तनाव बना होता हैं. आपको याद होगा कि कनाडा-अमेरिका के संबंध घनिष्ठ किस्म के थे. लेकिन ट्रंप और जस्टिन ट्रूडो के साथ काई बार असहमति की स्थिति थी और ट्रंप ने मजाक में कह दिया था कि ‘हम कनाडा को भी अपना 51वां राज्य बनाएंगे’. यह सब एक अलग हलचल है. कई फैसले वह परंपरागत ढंग से भी लेते हैं और कई बार अचानक से कुछ नए निर्णय भी लेते हैं. 

हालांकि, अगर हम ऐसे  देखें की ट्रंप दुनिया भर में बहुत ज्यादा सैन्य हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं होते है. इसी कारण से ही अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों की वापसी का फैसला डोनाल्ड ट्रंप का ही था.

क्या हमारे सैनिक अफ़ग़ानिस्तान या दुनिया की अलग-अलग जगहों में नहीं रहने चाहिए? उससे हमारे सैन्य खर्च में काफी ज्यादा वृद्धि होगी. लेकिन अभी  जब ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शुरु हो चुका है, इस पर अगर गौर करें तो यूक्रेन वॉर में कहीं न कहीं अमेरिका की भूमिका है. चीन के साथ अमेरिका के संबंध कई मामलों में बड़े तनावपूर्ण रहे है. अमेरिका के संबंध बड़े प्रतिस्पर्धात्मक है, उन स्थितियों में हमलोगों को देखना होगा कि ट्रंप उसको किस रूप में संभालते हैं. 

वैश्विक स्तर पर हो सकते हैं बड़े बदलाव

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की बात करें तो कई बड़े बदलाव हो सकते हैं. जिस तरह साल 2023 में अचानक हमास ने इजरायल के ऊपर हमला किया और इसके बाद इजरायल-मध्य पूर्व संकट काफी लंबा चला. हमास के हमले के बाद इजरायल अटैक में 50 हजार से ज्यादा फिलिस्तीन के लोग मारे गए.

मध्य पूर्व संकट में युद्ध विराम की स्थितियां बननी चाहिए थी, जो नहीं बन पा रही थी. लेकिन जब जाते हुए जो बाइडेन ने वैसी स्थितियां बनाई भी तो वहीं ईरान के साथ संबंधों को बेहतर करने के प्रयास चुनाव कैंपेन के दौरान खुद डॉनल्ड ट्रंप कर चुके थे. ट्रंप के आने से पहले ही हमलोग देख चुके हैं कि कहीं ना कहीं इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्धविराम की स्थिति बनी है. यानी, वर्ल्ड ऑर्डर में कई बड़े प्रकार के परिवर्तन देखने को मिल सकता है.

ग्रीनलैंड को लेकर काफी रस्साकशी चल रही है. ट्रंप उसे खरीदने का दावा करते हैं. चूंकि, वह आर्कटिक क्षेत्र का बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा है और उसके ऊपर रुस ने भी नजरें बनाकर रखीं है. रूस के जनरल ने ये तक कह दिया कि ‘ग्रीनलैंड को लेकर ज्यादा संघर्ष की स्थितियां नहीं होनी चाहिए’. 

अमेरिका-रूस आपस में मिलकर बैठें और ग्रीनलैंड का बंटवारा कर दें. दुनियाभर में कई ऐसे अलग-अलग  स्ट्रैटेजिक पॉइंट्स हैं जो रणनीतिक लिहाज से महत्वपूर्ण है, उन हिस्सों के ऊपर कब्जे की लड़ाई होगी. ऐसा लगता है कि इस बार ट्रंप काफी गंभीर होकर आएं हैं. हालांकि ट्रंप ने ग्रीनलैंड को 2019 में खरीदने का प्रयास किया था.

ग्रीनलैंड पर टकराव 

दरअसल, ग्रीनलैंड को अमेरिका खरीदने का प्रयास करता रहा है. ग्रीनलैंड वर्तमान में एक स्वायत्त क्षेत्र है, लेकिन वह डेनमार्क के अधीन है. वह पहले डेनमार्क का उपनिवेश हुआ करता था. बाद में डेनामार्क का स्वायत्तशासी क्षेत्र बना. यहां पर सबसे खास बात ये है कि ग्रीनलैंड के ऊपर डेनमार्क ने अपनी संप्रभुता स्थापित करने के लिए 1920-1921 में भी एक द्वीप अमेरिका को उस जमाने में बेच दिया था ताकि अमेरिका, ग्रीनलैंड के ऊपर संप्रभुता को स्वीकार कर ले. ग्रीनलैंड को पहली बार खरीदने का प्रयास नहीं किया गया है. द्वितीय विश्व युद्ध (1939 से 1945) के वक्त जब  जर्मनी ने डेनमार्क के ऊपर कब्जा कर लिया था, उस समय ग्रीनलैंड में अमेरिका ने अपना सैन्य अड्डा तैनात कर दिया था. 

हालांकि 1946 में जब पूरा मामला समाप्त हुआ, उस समय भी ग्रीनलैंड, डेनमार्क के अधीन था. लेकिन डेनमार्क और अमेरिका के बीच में एक समझौता हुआ था कि अमेरिका वहां पर अपना एक मिलिट्री बेस बना कर रखेगा. चूंकि, ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिकांशतः वह बर्फ से ढका हुआ हिस्सा है, अभी भी पूरा का पूरा आर्कटिक बर्फ से घिरा हुआ हिस्सा है. धीरे-धीरे ग्लोबल वार्मिंग के कारण वहां पर बर्फ पिघलकर हट रही है. बर्फ के हटने के कारण वो दुनिया भर के संसाधनों का महत्वपूर्ण केंद्र बनता चला जा रहा है.  ग्रीनलैंड में भारी संख्या में संसाधन है. संसाधनों के लिए ग्रीनलैंड का महत्व काफी ज्यादा बढ़ गया है. इसी वजह से अमेरिका, ग्रीनलैंड को डायरेक्ट खरीदना चाहता है.  

अमेरिका वर्चस्व और नीति 

इसके अलावे, कई सारे वाहं पर व्यापारिक मार्ग है, इस लिहाज से भी उसका बड़ा महत्व है. विदेश नीति का बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत होता है. 19 शताब्दी का मोनरो सिद्धांत (यूरोपीय शक्तियों को पश्चिमी गोलार्द्ध में हस्तक्षेप न करने की चेतावनी) अमेरिका की विदेश नीति का हिस्सा है. उस हिसाब से अमेरिका में उसको बड़ा महत्व दिया जाता है. मोनरो सिद्धांत को अभी माना जाता है. आर्कटिक क्षेत्र में अमेरिका का वर्चस्व होगा तो अमेरिका सुरक्षित होगा. उसे दृष्टि से भी अमेरिका नहीं चाहता कि ग्रीनलैंड के ऊपर किसी देश का प्रभाव हो. अमेरिका नहीं चाहता कि ग्रीनलैंड में भविष्य में रूस और चीन का प्रभाव हो जाए. 

इस बार ट्रंप के कार्यकाल में उनके लिए रूस-चीन के लिए चुनौती है. उनके वर्चस्व कि लड़ाई में वह अपने आप को कैसे सुरक्षित रखें?  1946 में अमेरिका ने डेनमार्क को प्रस्ताव दिया था कि वह ग्रीनलैंड को खरीदना चाहता है, लेकिन तब भी डेनमार्क ने अस्वीकार किया था. इसी सप्ताह डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने ट्रंप से वार्तालाप की और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि ‘ग्रीनलैंड बिकने के लिए तैयार नहीं है, ग्रीनलैंड बिकने वाला नहीं है.’ डेनमार्क के प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिकसेन और अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के बीच में फोन पर लंबी चौड़ी वार्तालाप हुई थी. फोन पर ग्रीनलैंड को खरीदने का मामले फिर से उठा था. हालांकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन प्रशासन के लोग हैं, उन लोगों ने इसको बहुत ज्यादा गंभीरता से लेने की बात नहीं की थी. 

लेकिन ग्रीनलैंड को लेकर जिस प्रकार से ट्रंप पहले से काफी ज्यादा गंभीर हैं. ऐसे में क्या ग्रीनलैंड के कारण और आर्कटिक भू-राजनीतिक तौर पर तनाव की स्थिति पैदा हो रही है? जहां पर की चीन, रूस बनाम अमेरिका की स्थिति पैदा हो रही है. उसकी एक बड़ा कीमत और बड़ा खामियाजा डेनमार्क और ग्रीनलैंड को भुगतना पड़ेगा. चूंकि ग्रीनलैंड के प्रधानमंत्री और लोग का कहना है कि ना तो हम दानिश बनना चाहता है, यानी हम लोग डेनमार्क के भी सिटीजन नहीं बनना चाहते और ना तो हम लोग अमेरिकी बनना चाहते हैं. हम लोग ग्रीनलैंड के निवासी हैं और ग्रीनलैंड के निवासी ही बने रहना चाहते हैं. 

हालांकि ट्रंप का यह कहना है कि जो सब्सिडी अभी ग्रीनलैंड को डेनमार्क से प्राप्त हो रहे हैं, वह सब्सिडी बहुत ज्यादा नहीं है. डेनमार्क बहुत ज्यादा संसाधन उपलब्ध नहीं कर रहा है. हम आपको बहुत ज्यादा संसाधन भी उपलब्ध कराएंगे. ट्रंप के आक्रामक तेवर के कारण ही कहीं ना कहीं इस आर्कटिक क्षेत्र में एक तनाव की रेखाएं दिख रही हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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