अमेरिका को अक्सर दुनिया का सबसे तरक़्क़ी-याफ़्ता प्रगतिशील मुल्क और एजुकेशन के मैदान में सबसे आगे समझा जाता है. मगर हाल ही में कनेक्टिकट की 19 साला अलेशा ऑर्टिज़ के केस ने इस सोच पर एक संगीन सवाल खड़ा कर दिया है. अलेशा ने हार्टफोर्ड पब्लिक हाई स्कूल से ऑनर्स के साथ ग्रेजुएशन किया, मगर अफ़सोस की बात ये है कि उसे ठीक से पढ़ना और लिखना तक नहीं आता. ये मामला किसी एक स्टूडेंट की नाकामी नहीं, बल्कि पूरे अमेरिकी एजुकेशन सिस्टम की बड़ी खामियों को बेनक़ाब करता है.
अब अलेशा ने हार्टफोर्ड बोर्ड ऑफ एजुकेशन और शहर की इंतेज़ामिया के ख़िलाफ मुक़दमा दर्ज किया है. उनका इल्ज़ाम है कि स्कूल ने उनकी खास ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया और उनकी एजुकेशन पर कोई ध्यान नहीं दिया. ये एक चौंकाने वाला मामला ज़रूर है, मगर कोई अकेली मिसाल नहीं. हक़ीक़त ये है कि अमेरिका के सरकारी स्कूलों में नस्ली और आर्थिक नाइंसाफ़ी बेहद गहरी है.
अमेरिका के सरकारी स्कूलों में फंडिंग सिस्टम ज्यादातर लोकल प्रॉपर्टी टैक्स (इलाके की जायदाद पर लगने वाले टैक्स) पर डिपेंडेंट (निर्भर) है. इसका मतलब ये हुआ कि अमीर इलाकों के स्कूलों को ज़्यादा फंड्स मिलते हैं, जबकि गरीब और अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी) बहुल इलाकों के स्कूलों को कम.
साल 2019 में आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, गैर-श्वेत (ब्लैक, लैटिनो, एशियन वगैरह) स्कूलों को श्वेत बहुल (व्हाइट मेजॉरिटी) स्कूलों से करीब 23 अरब डॉलर कम फंडिंग मिलती है. हार्टफोर्ड जैसे शहरों में, जहां तक़रीबन 90% स्टूडेंट्स माइनॉरिटी बैकग्राउंड से आते हैं, वहां ये मसला और भी संगीन हो जाता है.
कम फंडिंग के असरात कई चीज़ों पर पड़ते हैं, जैसे कि टीचर्स की तनख़्वाह कम होती है. क्लासरूम्स की हालत खराब होती है. एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ न के बराबर होती हैं. स्पेशल एजुकेशन सर्विसेज (खास ज़रूरत वाले बच्चों की तालीम) सही से नहीं चलतीं.
इन हालात की वजह से गरीब और माइनॉरिटी बच्चों को बेहतर तालीम नहीं मिल पाती, जिससे उनका मुस्तक़बिल (भविष्य) ख़तरे में पड़ जाता है. अलेशा ऑर्टिज़ स्पेशल एजुकेशन सर्विसेज़ में थीं, मगर स्कूल ने उनकी तालीमी ज़रूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया. अमेरिका में स्पेशल एजुकेशन के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, मगर हकीकत इससे बहुत अलग है.
शोध बताते हैं कि स्पेशल एजुकेशन में भी नस्ली भेदभाव गहरा है. अक्सर गैर-श्वेत बच्चों को ज़रूरी मदद और संसाधन नहीं दिए जाते, जिससे वे बुनियादी पढ़ने-लिखने की सलाहियत भी हासिल नहीं कर पाते.
अलेशा का केस भी इसी बात की मिसाल है. स्कूल वालों को ये तब अहसास हुआ जब ग्रेजुएशन के सिर्फ दो दिन बाकी थे! तब उन्हें ऑफर दिया गया कि वे डिप्लोमा छोड़कर स्पेशल एजुकेशन सर्विसेज़ ले सकती हैं. मगर अलेशा ने 12 साल की नाइंसाफी के बाद ये ऑफर ठुकरा दिया और अपने हक़ के लिए लड़ने का फैसला किया. अमेरिका में तालीम की इस असमानता के कई संगीन नतीजे हैं, जैसा कि मआशी (आर्थिक) मौके कम हो जाते हैं:
बच्चे अगर स्कूल में ठीक से पढ़ाई न करें, तो आगे चलकर बेहतर नौकरियां नहीं मिलतीं. इससे वो ज़िंदगी भर गरीबी और संघर्ष में फंसे रहते हैं. कई रिसर्च बताते हैं कि जिन्होंने सही तालीम नहीं ली, उनके जुर्म में शामिल होने के चांस ज्यादा होते हैं. गरीब और अल्पसंख्यक इलाकों में अपराध दर ज्यादा होती है, क्योंकि वहां तालीमी असमानता बहुत गहरी है. तालीम की गैरबराबरी से श्वेत और गैर-श्वेत समुदायों के बीच आमदनी, सेहत और लाइफस्टाइल में बहुत बड़ा फर्क पड़ता है.
जब कोई कौम सही तालीम न पाए, तो उसका सियासी और समाजी असर भी कमजोर हो जाता है. इस वजह से वो अपने हक़ के लिए मजबूती से आवाज़ नहीं उठा पाते. अगर अमेरिका सच में “बराबरी के मौकों” वाला मुल्क बनना चाहता है, तो उसे अपनी तालीमी नीतियों में बड़े बदलाव लाने होंगे.
सरकारी स्कूलों की फंडिंग सिर्फ लोकल टैक्स पर डिपेंड न रहे. फेडरल और स्टेट गवर्नमेंट्स को अमीर और गरीब जिलों के स्कूलों में बराबरी से फंडिंग करनी चाहिए. स्पेशल एजुकेशन सर्विसेज़ में ज्यादा बजट और अच्छे टीचर्स लगाए जाएं ताकि गैर-श्वेत स्टूडेंट्स को भी सही तालीम मिले.
सिर्फ डिप्लोमा पकड़ाने से मसला हल नहीं होगा. स्कूलों को देखना होगा कि स्टूडेंट्स असल में पढ़-लिख भी रहे हैं या नहीं. साथ ही सोसाइटी, माता-पिता और टीचर्स को तालीमी नीतियों में एजुकेशन पालिसी में ज्यादा शामिल किया जाए ताकि स्कूलों की जवाबदेही (अकाउंटेबिलिटी) बढ़े.
अलेशा ऑर्टिज़ का मामला सिर्फ एक स्टूडेंट की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की कहानी है. अगर अमेरिका को अपने तालीमी निज़ाम को बेहतर और बराबरी पर आधारित बनाना है, तो उसे नस्ली और आर्थिक असमानता खत्म करनी होगी. तालीम सिर्फ डिग्री या सर्टिफिकेट का नाम नहीं. इसका असल मक़सद हर बच्चे को क़ाबिल बनाना और बराबरी का मौका देना होना चाहिए.
अब देखना ये है कि अलेशा की क़ानूनी लड़ाई क्या रंग लाती है. मगर ये साफ है कि उनकी जद्दोजहद उन लाखों बच्चों की लड़ाई है जो इस तालीमी नाइंसाफी का शिकार हैं. अब वक्त आ गया है कि अमेरिका अपने एजुकेशन सिस्टम पर संजीदगी से गौर करे और इसे हकीकत में बराबरी वाला बनाए.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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