आखिर कैसे कुंभ साधारण व्यक्ति को महान बनने के लिए करता है प्रेरित ?

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Mahakumbh 2025: प्रयागराज के कुम्भ में अब तक लगभग 7 करोड़ सनातनी स्नान कर चुके हैं. इस लेख के माध्यम से जानेंगे कि क्यों कुम्भ सभी सनातनियो के लिए कल्याणकारी हैं भले ही वो किसी भी वर्ण का हो या किसी भी संप्रदायों का हो.

सबसे पहले जानते है कुम्भ का अर्थ. ‘कुम्भ’ शब्द का अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है.

यथार्थतः ‘कुम्भ’ शब्द समग्र सृष्टि के कल्याणकारी अर्थ को अपने- आपमें समेटे हुए है-

कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान- विशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः  (Source – कुम्भ पर्व गीता प्रेस)

‘पृथ्वी को कल्याण की आगामी सूचना देने के लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे ‘कुम्भ’ कहते हैं.’

इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन-कल्याणकारी भावों को भी ‘कुम्भ’ शब्द के शब्दार्थ में देखा जा सकता है.

पुराणों में कुम्भ-पर्व की स्थापना बारह की संख्या में की गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोक के लिये और आठ देवलोकों के लिये हैं-

देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ।। पापापनुत्तये नृणां चत्वारि भुवि अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न भारते। चेतरैः ॥ (Source – कुम्भ पर्व गीता प्रेस)

भूमण्डल के मनुष्य मात्र के पाप को दूर करना ही कुम्भ की उत्पत्तिका हेतु है. यह पर्व प्रत्येक बारहवें वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक – इन चारों स्थानों में होता रहता है. इन पर्वों में भारत के सभी प्रान्तों से समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करने के लिये आते हैं.

क्षार-समुद्र से पर्यवेष्टित भारतभूमि स्वभावतः मलिनता के कलंक- पंक से युक्त है. यह पुण्यप्रक्षालित भूमि है. भौगोलिक दृष्टि से इसके चार पवित्र स्थानों में उस अमृत-कुम्भ की प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थन से उद्भूत हुआ था.

कालिक दृष्टि से ऐसे ग्रह–योग जो खगोल में लुप्त-सुप्त अमृतत्व को प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानों में बारह-बारह वर्षपर अर्थात् द्वादश वर्षात्मक कालयोगसे प्रकट होते हैं. तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) – ये पतितपावनी नदियाँ अपनी जलधारा में अमृतत्व को प्रवाहित करती हैं। अर्थात् देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृत के प्रादुर्भाव के योग्य हो जाते हैं। फलस्वरूप अमृतघट या कुम्भ का अवतरण होता है.

कालचक्र न केवल जीवन के क्रिया-कलाप का मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्र पर आधारित हैं. कालचक्र में सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पति का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इन तीनों का योग ही कुम्भ-पर्व का प्रमुख आधार है.

जब बृहस्पति मेष राशि पर तथा चन्द्रमा सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तब प्रयाग में अमावास्या तिथि को अति दुर्लभ कुम्भ होता है. इस स्थिति में सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं. हमारे जीवन में जब मित्र और श्रेष्ठजनों का मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारों का उदय होता है और हमारे जीवन में यह योग ही सुखदायक होता है.

कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित सभी सम्प्रदायों के धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्र की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता के लिये विचार-विमर्श करते हैं. स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञका पवित्र वातावरण देवताओं को भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता.

ऐसी मान्यता है कि इस महापर्वपर सभी देवगण तथा अन्य पितर-यक्ष-गन्धर्व आदि पृथ्वीपर उपस्थित होकर न केवल मनुष्य मात्र, अपितु जीव मात्र को अपनी पावन उपस्थिति से पवित्र करते रहते हैं और साथ ही साथ यहां दिव्य संतों की उपस्थिति इस भूमि को स्वर्ग जैसा बना देती हैं.

यहां ऐसे संत आते हैं जो सिर्फ़ आपको कुम्भ में दिखते हैं और कुम्भ के समाप्त होते ही ये दिव्य संत अचानक से किसी अज्ञात स्थान में चले जाते है जिसका आज तक किसी को पता नहीं चला. स्वामी अंजनी नंदन दास अनुसार यही अज्ञात संत स्वर्ग के देवगण है जो पृथ्वी में मनुष्यों को आशीर्वाद देने आते हैं. उनके आशीर्वाद से ही मनुष्यों का जीवन प्रशस्त होगा जो की अपनी व्यस्तता और अवसाद (Depression) रोग से ग्रस्त हैं.

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