Guru Purnima 2025: धर्म शास्त्रों में गुरु का स्थान ईश्वर से ऊंचा बताया गया है. क्योंकि गुरु ही हमें ईश्वर से परिचित कराते हैं. गुरु पूर्णिमा का पावन दिन हमें इस बात की सीख देता है कि, समस्त सांसारिक विधि-विधानओं का बोध कराने वाले, विद्या प्रदान करने वाले, अज्ञानता के अंधकार से बाहर निकाल जीवन का प्रकाश दिखाने वाले और मनुष्य को महान बनाने वाले गुरु के साथ हमारा आचरण कैसा होना चाहिए, उनका आदर कैसे करना चाहिए.
इसी संदर्भ में हर साल आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. यह दिन गुरुजनों का सम्मान करने और उनके प्रति आभार व कृतज्ञता प्रकट करने का होता है. इस दिन को महर्षि वेद व्यास की जयंती (Ved Vyas Jayanti) के रूप में भी मनाया जाता है. बता दें कि इस साल गुरु पूर्णिमा का पर्व गुरुवार 10 जुलाई 2025 को है.
गुरु की महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में तो मिलता ही है. इसी के साथ कबीर दास और रहीम आदि जैसे महान कवियों ने भी गुरु के संदर्भ में कई दोहे लिखे हैं. ये दोहे जीवन में गुरु के महत्व और गुरु की महानता को बताते हैं. आइये जानते हैं गुरु पूर्णिमा पर गुरु से जुड़े ऐसे ही दोहे के बारे में.
गुरु पूर्णिमा दोहे (Famous Dohe On Guru Purnima 2025)
गुरु पारस को अंतरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लयो महंत।
इस दोहे को महान संत कबीर ने लिखा है. इसमें गुरु की व्याख्या पारस पत्थर से की गई. पारस ऐसा चमत्कारिक पत्थर होता है, जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है. कबीर कहते हैं कि, गुरु और पारस पत्थर में अंतर है, यह सब संत जानते हैं. पारस तो लोहे को सोना बनाता है. लेकिन गुरु शिष्य को अपने समान महान बना देता है.
गुरु अनंत तक जानिए, गुरु की ओर न छोड़
गुरु प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर
इस दोहे को रहीम ने लिखा है, जिसका अर्थ है कि- सागर की अनंत: की तरह ही गुरु के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है. इसलिए गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करते रहें. आप जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे, उतना ही गुरु ज्ञान का विस्तार होगा.
परमेसर सूं गुरु बड़े, गावत वेद पुराने।
सहजो हरि घर मुक्ति है, गुरु के घर भगवान।।
सहजोबाई द्वारा लिए गए इस दोहे में बताया गया है कि, गुरु ही हैं जो व्यक्ति को ईश्वर तक पहुंचाने के लिए पुल का कार्य करते हैं. इसलिए गुरु की कृपा पाने का अर्थ है ईश्वर को पा लेना.
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥
इस दोहे का अर्थ है कि, व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना-जाना चाहिए. कबीर कहते हैं कि, संत वही है जो जन्म और मरण से पार होने के लिए साधना करते हैं.
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