सुप्रीम कोर्ट ने धर्म परिवर्तन के मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. कोर्ट का कहना है कि बिना किसी वास्तविक आस्था के सिर्फ रिजर्वेशन के लिए धर्म परिवर्तन संविधान के साथ धोखाधड़ी है. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात उस मामले में कही है, जिसमें क्रिश्चन लड़की ने एससी सर्टिफिकेट के लिए अपील की है और अब खुद को हिंदू बता रही है. याचिकाकर्ता का जन्म ईसाई फैमिली में हुआ था. हालांकि, लड़की के पिता पहले हिंदू थे, लेकिन बाद में उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था. लड़की भी ईसाई धर्म का पालन करती थी, लेकिन अब वह नौकरी में आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति के सर्टिफिकेट के लिए खुद को हिंदू बता रही है.
याचिकाकर्ता सी. सेल्वरानी के पिता वल्लुवन जाति से थे, जो अनुसूचित जाति में शामिल है और उनके ईसाई धर्म में कंवर्ट होने की पुष्टि दस्तावेजी साक्ष्यों से हो चुकी है. फैसले में कहा गया कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती रहीं, जैसा कि नियमित रूप से गिरजाघर जाने से पता चलता है. इससे उनके हिंदू होने का दावा अस्वीकार्य हो जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईसाई धर्म अपनाने वाले व्यक्ति अपनी जातिगत पहचान खो देते हैं और अनुसूचित जाति के लाभ का दावा करने के लिए उन्हें पुनः धर्मांतरण और अपनी मूल जाति द्वारा स्वीकार किए जाने का ठोस सबूत देना होगा. फैसले में कहा गया कि अपीलकर्ता के पुनः हिंदू धर्म में धर्मांतरण या वल्लुवन जाति द्वारा धर्म स्वीकार करने का कोई ठोस सबूत नहीं है.
जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस आर. महादेवन ने सी. सेल्वरानी की याचिका पर 26 नवंबर को यह फैसला सुनाया. उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के 24 जनवरी के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें ईसाई धर्म अपना चुकी महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया गय था. जस्टिस महादेवन ने पीठ के लिए 21 पृष्ठ का फैसला लिखा. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोई व्यक्ति किसी अन्य धर्म को तभी अपनाता है, जब वह वास्तव में उसके सिद्धांतों, धर्म और आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित होता है.
उन्होंने कहा, ‘अगर धर्म परिवर्तन का मुख्य मकसद दूसरे धर्म में वास्तविक आस्था होने के बजाय आरक्षण का लाभ प्राप्त करना है तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसी गलत मंशा रखने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण नीति के सामाजिक लोकाचार को ही क्षति पहुंचेगी.’ बेंच के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य से स्पष्टतया पता चलता है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म को मानती थी और नियमित रूप से चर्च में जाकर सक्रिय रूप से इस धर्म का पालन करती थी. इसके बावजूद वह हिंदू होने का दावा करती है और नौकरी के लिए अनुसूचित जाति समुदाय का प्रमाण-पत्र मांगती है.
बेंच ने कहा कि इस तरह का दोहरा दावा अस्वीकार्य है और वह ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद एक हिंदू के रूप में अपनी पहचान बनाए नहीं रख सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिला ईसाई धर्म में आस्था रखती है और सिर्फ नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने के उद्देश्य से वह हिंदुत्व का अब तक पालन करने का दावा करती है. ऐसे में महिला को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान करना आरक्षण के मूल उद्देश्य के खिलाफ होगा और संविधान के साथ धोखाधड़ी होगी.
सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया कि केवल आरक्षण का लाभ पाने के लिए अपनाए गए धर्म में वास्तविक आस्था के बिना धर्म परिवर्तन करना आरक्षण नीति के मौलिक सामाजिक उद्देश्यों को कमजोर करता है और महिला का कार्य हाशिये पर पड़े समुदायों के उत्थान के उद्देश्य से आरक्षण नीतियों की भावना के विपरीत है. हिंदू पिता और ईसाई माता की संतान सेल्वरानी को जन्म के कुछ समय बाद ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी, लेकिन बाद में उन्होंने हिंदू होने का दावा किया और 2015 में पुडुचेरी में उच्च श्रेणी लिपिक के पद पर आवेदन करने के लिए अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र मांगा.
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