झुंझुनूं रोडवेज डिपो में फर्जी हाजिरी, गलत मेडिकल सर्टिफिकेट और बिना ड्यूटी किए वेतन उठाने के मामले में हाईकोर्ट (जयपुर बेंच) ने सस्पेंड कर्मचारियों की स्टे याचिका को खारिज कर दी। जज ने कहा कि विभाग द्वारा जारी निलंबन आदेश प्रथम दृष्ट्या नियमों के अनुरूप हैं। याचिकाकर्ताओं को इस स्तर पर कोई राहत नहीं दी जा सकती।
दरअसल पांच जून को झुंझुनूं रोडवेज डिपो में 13 कर्मचारियों को एक साथ सस्पेंड कर दिया गया था। प्रारंभिक जांच में पाया गया कि इन कर्मचारियों ने फर्जी हाजिरी लगाई, छुट्टी पर रहते हुए उपस्थिति दर्ज करवाई, बिना मेडिकल अनुमति के महीनों तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहे। इस दौरान सभी 13 कर्मचारी वेतन भी उठाते रहे। ऐसे में विभाग को 89 लाख रुपये से अधिक का नुकसान हुआ।
हाईकोर्ट ने सामूहिक रूप से स्टे याचिका खारिज की
राजस्थान उच्च न्यायालय, जयपुर पीठ में झुंझुनूं रोडवेज डिपो के 13 निलंबित कर्मचारियों ने अलग-अलग याचिकाएं दी थीं। सभी मामलों को एक साथ जोड़कर न्यायाधीश सुदेश बंसल की एकल पीठ में सुना गया। सभी याचिकाओं में यह मांग की गई कि उनके निलंबन आदेश पर रोक लगाई जाए। दोबारा ड्यूटी पर बहाल किया जाए। अदालत ने इन सभी याचिकाओं को 17 जुलाई के अपने आदेश में स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। सुनवाई की अगली तारीख 7 अगस्त 2025 तय की है।
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रोडवेज का तर्क- निलंबन नियमों के आधार पर किया
राजस्थान पथ परिवहन निगम की ओर से अधिवक्ता राजपाल धनखड़ ने अदालत में पक्ष रखा। कहा- कर्मचारियों को जिन नियमों के तहत निलंबित किया गया है, वे निगम के अधीन लागू स्टैंडिंग ऑर्डर 1965 के प्रावधान (रूल 10, रूल 16 (1)) के अनुरूप हैं। निलंबन कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं बल्कि विभागीय अनुशासन का एक हिस्सा है। यह जांच के दौरान लागू किया गया है।
याचिकाकर्ताओं की दलील- बिना सुनवाई सस्पेंड किया
13 कर्मचारियों की ओर से पेश वकीलों ने तर्क दिया- याचिकाकर्ताओं को बिना पूर्व सूचना और बिना कोई स्पष्टीकरण मांगे सीधे निलंबित कर दिया गया। इससे उनके मूल अधिकारों का हनन हुआ। प्रथम दृष्टया ऐसा कोई स्पष्ट आरोप नहीं है जिससे निलंबन जैसे कठोर कदम को उचित ठहराया जा सके।
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अदालत का मत- विभाग की कार्रवाई उचित
न्यायाधीश सुदेश बंसल ने आदेश में कहा- कोर्ट मानता है कि निलंबन आदेश पहली नजर में विभागीय नियमों के अनुसार है। विभागीय अनुशासन, पारदर्शिता और संस्थागत कार्य प्रणाली बनाए रखने के लिए ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। जब तक कि याचिकाकर्ता यह सिद्ध न कर दें कि आदेश मनमाना या नियमों के विरुद्ध है। वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता नहीं।