प्रसिद्ध वन्यजीव विशेषज्ञ, लेखक और बाघ संरक्षण के लिए समर्पित कार्यकर्ता वाल्मिक थापर का शनिवार सुबह दिल्ली में निधन हो गया। वह 50 वर्षों से अधिक समय तक भारत में टाइगर संरक्षण के अग्रणी चेहरा रहे और उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों की 150 से अधिक समितियों में अपनी सेवाएं दीं। उनके निधन को देश ने एक अपूरणीय क्षति बताया है।
वाल्मिक थापर का मुख्य कार्यक्षेत्र राजस्थान का रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान रहा, जहां उन्होंने बाघों के संरक्षण में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। हालांकि उनका योगदान महाराष्ट्र के ताडोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व सहित कई अन्य अभयारण्यों के पुनर्जीवन में भी अहम रहा। सैंक्चुअरी नेचर फाउंडेशन के अनुसार, “उनकी सोच और प्रयासों ने देशभर के अभयारण्यों को नई दिशा दी।”
पर्यटन को लेकर था संतुलित दृष्टिकोण
थापर का मानना था कि पर्यटन को पूरी तरह नकारना समाधान नहीं है। वे मानते थे कि यदि योजनाबद्ध तरीके से पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए तो इससे न केवल वन्यजीव अभयारण्यों को लाभ हो सकता है, बल्कि आसपास के ग्रामीण समुदायों को भी आर्थिक संबल मिल सकता है। उन्होंने वैज्ञानिकों, ग्रामीणों, पत्रकारों और राजनेताओं के सहयोग से संरक्षण को सफल बनाने की वकालत की।
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लेखन में भी रहा अग्रणी योगदान
वाल्मिक थापर ने अपने जीवनकाल में कुल 32 पुस्तकें लिखीं, जिनमें से चार अफ्रीका पर आधारित थीं। ‘लिविंग विद टाइगर्स’ और ‘द सीक्रेट लाइफ ऑफ टाइगर्स’ जैसी किताबों ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। उनका लेखन वैज्ञानिक समझ और संवेदनशीलता का अनोखा मेल था।
जयराम रमेश ने जताया शोक
पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर थापर को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, “वाल्मिक थापर पिछले चार दशकों में टाइगर संरक्षण के सबसे प्रभावशाली चेहरों में से एक थे। रणथंभौर का आज जो स्वरूप है, उसमें उनका विशेष योगदान है।” उन्होंने आगे लिखा, “हमारे बीच कई बार बहसें होती थीं, लेकिन हर बातचीत ज्ञानवर्धक होती थी। उनकी विद्वता और समर्पण को भुलाया नहीं जा सकता।”