माधोराव सिंधिया 100वीं पुण्यतिथि: पेरिस की धरती पर ली थी अंतिम सांस, मदन मोहन मालवीय ने दिया था ये विशेष नाम

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आज से ठीक 100 वर्ष पूर्व, 1925 में, पेरिस की धरती पर ग्वालियर रियासत के शासक माधो राव सिंधिया ने अंतिम सांस ली थी। माधो राव सिंधिया को ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में आज भी याद किया जाता है। इस क्षेत्र में उन्होंने कई काम किए। भरतपुर के महाराजा किशन सिंह ने उन्हें ‘राजकुमारों का अगुआ कहा, जबकि टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें इंडियन कार्नेगी की उपाधि दी थी। 

 




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पुरानी तस्वीरें
– फोटो : अमर उजाला


बता दें कि उनका शासन शिक्षा में नवाचार और स्वास्थ्य व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए जाना जाता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय ने भी उन्हें ‘जनसेवा में पिता-तुल्य’ बताया। 1922 के असहयोग आंदोलन के दौरान, जब महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, तब माधो राव सिंधिया ने अपने मंत्री सदाशिवराव पवार के माध्यम से आर्थिक सहायता भी भेजी, जो उनकी राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक बना।


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नक्शा
– फोटो : अमर उजाला


संस्थागत विकास और सामाजिक सुधार

माधो राव सिंधिया के शासनकाल में ग्वालियर व आसपास के क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना हुई, जैसे महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज, जयारोग्य अस्पताल, द सिंधिया स्कूल, दिल्ली परिवहन निगम और एनसीसी ट्रेनिंग अकादमी। उन्होंने कुल राजस्व का 20–25% भाग अनिवार्य बचत के रूप में संरक्षित किया, जिसे सिंचाई, शिक्षा और राहत योजनाओं में लगाया गया। प्रशासन में विकेंद्रीकरण की दिशा में पंचायत, जिला बोर्ड और नगरपालिका जैसी संस्थाओं की स्थापना भी उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही।

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क्षेत्रीय विकास और आधारभूत संरचना

माधो राव सिंधिया के समय ग्वालियर और उज्जैन में बाजारों का विस्तार, सड़कों का निर्माण और अन्य विकास परियोजनाएं चलाई गईं, जिससे स्थानीय क्षेत्रों का समग्र विकास सुनिश्चित हुआ।

 


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मराठी में उनके बारे में लिखा गया
– फोटो : अमर उजाला


औद्योगिकीकरण और शिक्षा में योगदान

1906 में उन्होंने ग्वालियर चैंबर ऑफ कॉमर्स की स्थापना की और टाटा स्टील जैसे उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान की, जिससे राष्ट्रीय औद्योगीकरण को समर्थन मिला। शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पहले प्रो-कुलपति बने और ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज व एडिनबर्ग जैसे विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1925 में पेरिस में उनका निधन हुआ, और उनकी अस्थियां बाद में शिवपुरी लाई गईं। द डेली टेलीग्राफ ने उन्हें भारत के प्रगतिशील राजाओं में शुमार किया। उनका कार्यकाल परंपरागत राजशाही और आधुनिक प्रशासन के संतुलन का उदाहरण रहा।


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