भारत में एक देसी कहावत काफी प्रचलित है- घर का जोगी जोगिया, बाहर का जोगी सिद्ध. इसी कहावत के तर्ज पर जब भी हम बड़े निवेशकों की बात करते हैं तो सबसे पहले वॉरेन बफेट का नाम लेते हैं. सही भी है, क्योंकि ‘ओमाहा के ओरेकल’ कहे जाने वाले बफेट ने 11 साल की उम्र में लगभग 120 डॉलर से निवेश शुरू किया था, और आज उनकी कुल संपत्ति लगभग 115 अरब डॉलर है. यह काम आसान नहीं है. इसी तरह, भारत के वॉरेन बफेट कहे जाने वाले राकेश झुनझुनवाला ने भी केवल 5000 रुपये से निवेश की शुरुआत की और अरबों की संपत्ति बनाई. लेकिन आज जिस शख्स की कहानी हम आपको बता रहे हैं, उसने भी निवेश की दुनिया में जो किया है, वह आम बात नहीं है. लेकिन, चूंकि वह एक देसी आदमी है, बिहार से नाता रखता है, लिट्टी-चोखा उसका फेवरेट फूड है, बहुत सिंपल बातें करता है, तो लोग उनके नाम को वैसी तवज्जो नहीं देते, जितनी के वे हकदार हैं. उनके बारे में जानकारी का अभाव भी इसकी एक वजह हो सकती है. आज हम बात कर रहे हैं बिहार से लाला अनिल अग्रवाल की.अनिल अग्रवाल ने करीब 22 साल पहले हिन्दुस्तान ज़िंक नामक कंपनी में केवल 1,000 करोड़ रुपये इनवेस्ट किए थे. उस इनवेस्टमेंट से अग्रवाल को डिविडेंड और शेयर बेचकर कुल 71,000 करोड़ रुपये मिल चुके हैं. मतलब, सिर्फ 22 सालों में उनका पैसा 70 गुना बढ़ गया. यह परफॉर्मेंस वॉरेन बफेट की कंपनी बर्कशायर हाथवे से भी बेहतर है. अनिल अग्रवाल वेदांता कंपनी के फाउंडर हैं. एक छोटे शहर से निकलकर ऐसे बिज़नेसमैन बने हैं कि बड़े-बड़े मैनेजमेंट स्कूल वाले भी उनसे सीख सकते हैं. हाल ही में उन्होंने फिर एक बार साबित कर दिया कि अगर फोकस और धैर्य के साथ किसी अच्छी कंपनी में इनवेस्ट किया जाए, तो उसका फल मीठा मिलता है.
हाल ही में वेदांता ने हिन्दुस्तान ज़िंक के 66.7 मिलियन शेयर 449 के प्राइस पर बेचकर 3,000 करोड़ जुटाए हैं. यह कंपनी की 1.6% हिस्सेदारी थी. इससे पहले वेदांता के पास 63.42 फीसदी हिस्सेदारी थी. वेदांता को हिन्दुस्तान ज़िंक में अपने इनवेस्टमेंट पर हर साल करीब 24 फीसदी का रिटर्न मिला है, जबकि इसी समय Nifty 50 ने सिर्फ 15 फीसदी CAGR दिया है. वेदांता ने ये शेयर 39 रुपये प्रति शेयर पर खरीदे थे, और स्टॉक स्प्लिट के बाद इनकी लागत सिर्फ 3 रुपये प्रति शेयर के करीब आ गई.
वॉरेन बफेट से तुलना
तुलना करें तो वॉरेन बफेट की कंपनी ने इसी समय में 20 फीसदी का रिटर्न दिया, जबकि S&P 500 ने सिर्फ 10 फीसदी. बफे का फोकस हमेशा अंडरवैल्यूड कंपनियों को खरीदकर उन्हें बेहतर बनाने पर रहा है. अनिल अग्रवाल का तरीका भी कुछ ऐसा ही है. वो सस्ती कंपनियां खरीदते हैं, उनकी लागत घटाने के लिए बैकवर्ड इंटिग्रेशन करते हैं, और फिर उन्हें बढ़ने में मदद करते हैं.
प्राइवेट इक्विटी कंपनियां जहां छोटे-छोटे प्रॉफिट्स से खुश हो जाती हैं, वहीं अनिल अग्रवाल का टारगेट हमेशा बड़ा होता है- लगातार 30 फीसदी सालाना रिटर्न देना. उन्होंने खुद के पैसे से रिस्क लिया, बड़ी सोच रखी और कंपनी को लंदन स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट करवाया, जिससे इंटरनेशनल इनवेस्टर्स और गवर्नेंस में सुधार आया.
अनिल अग्रवाल की शुरुआत 1980 के दशक में स्टेरलाइट इंडस्ट्रीज़ (Sterlite Industries) से हुई, जो जेली-फिल्ड केबल्स बनाती थी. बाद में उन्होंने कॉपर प्रोडक्शन शुरू किया, क्योंकि वही केबल बनाने का मुख्य मैटेरियल था. 1995 में उन्होंने घाटे में चल रही मद्रास एलुमिनियम (Madras Aluminium) को खरीदा, और 2001 में भारत सरकार के विनिवेश कार्यक्रम में हिस्सा लेकर BALCO की 51 फीसदी स्टेक खरीदा.
हिन्दुस्तान ज़िंक की कहानी
2002 में उन्होंने हिन्दुस्तान ज़िंक में 26 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी. फिर 2003 में वेदांता रिसोर्सेज बनाई. 2007 में उन्होंने सेसा गोवा (Sesa Goa) को भी खरीदा, जो उस समय भारत की सबसे बड़ी आयरन ओर माइनिंग कंपनी थी. 2012 में इस कंपनी का स्टेरलाइट के साथ मर्ज कर दिया गया.
आज हिन्दुस्तान ज़िंक दुनिया की सबसे बड़ी ज़िंक प्रोड्यूसर है, और यह सब अनिल अग्रवाल की दूरदर्शिता से संभव हुआ. वेदांता ने 2002 में 40.5 रुपये प्रति शेयर की बिड लगाई थी और बाद में 35 रुपये प्रति शेयर पर और शेयर खरीदे. नवंबर 2003 में एक ऑप्शन के जरिए उन्होंने 18.92 फीसदी और हिस्सेदारी ली और कुल हिस्सेदारी 64.92 प्रतिशत हो गई.
अगस्त 2024 में वेदांता ने फिर 3.17 फीसदी हिस्सेदारी 6,500 करोड़ रुपये में बेचने का ऑफर दिया था, लेकिन बाद में कुछ शेयर मार्केट से वापस खरीद लिए और हिस्सेदारी फिर 63.42 फीसदी तक बढ़ गई.
2003 से अब तक वेदांता को हिन्दुस्तान ज़िंक से करीब 68,000 करोड़ रुपये डिविडेंड मिला है. साथ ही हाल ही की 3,000 करोड़ रुपये की शेयर बेचकर, कुल इनकम 71,000 करोड़ रुपये हो गई है. आज भी वेदांता के पास 11,600 करोड़ रुपये की वैल्यू का हिस्सा है.
19 साल की उम्र में कूदे स्क्रैप ट्रेडिंग में
अनिल अग्रवाल ने अपना बिज़नेस करियर 19 साल की उम्र में स्क्रैप ट्रेडिंग से शुरू किया था. 22 की उम्र में उन्होंने शमशेर स्टेरलिंग (Shamsher Sterling) नाम की कंपनी 16 लाख रुपये में खरीदी थी. इसमें उन्होंने दोस्तों, परिवार और बैंकों से उधार लिया था. यहीं से उन्हें मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री की असली चुनौतियों का पता चला, जैसे कि वर्किंग कैपिटल मैनेज करना, सैलरी देना, और कच्चे माल के प्राइस के उतार-चढ़ाव से जूझना.
इन कठिनाइयों ने उन्हें मजबूत बनाया. उन्होंने मेडिटेशन, आत्मविश्वास और धैर्य के बल पर अपने बिज़नेस को चलाया. फिर 1980 के दशक में उन्होंने केबल बिज़नेस में कदम रखा और देश का पहला कॉपर स्मेल्टर भी बनाया. जैसे-जैसे वेदांता का बिज़नेस बढ़ा, वैसे-वैसे उसका कर्ज भी बढ़ता गया. आज कंपनी पर कुल 75,000 करोड़ रुपये का कर्ज है. कंपनी हिन्दुस्तान ज़िंक से मिलने वाले डिविडेंड का इस्तेमाल इस कर्ज को कम करने के लिए कर रही है.
डिविडेंड अच्छा, तो चिंता की क्या बात?
हालांकि डिविडेंड अच्छा मिल रहा है, लेकिन एक्सपर्ट्स सतर्क रहने की सलाह दे रहे हैं. इकॉनमिक्स टाइम्स ने निखिल गांगिल (Nikhil Gangil) नाम के एक इनवेस्टर के हवाले से बताया कि वेदांता के प्रमोटर के सारे शेयर गिरवी हैं और एक साल में रिटेल इनवेस्टर्स की संख्या 9 लाख से 20 लाख हो गई है- जो रिस्क और गवर्नेंस के लिहाज से चिंता की बात है.
बफेट आम तौर पर कंज्यूमर बिज़नेस में इनवेस्ट करते हैं, जहां मांग स्थिर रहती है. वहीं अनिल अग्रवाल ने अपनी कंपनी कमोडिटी सेक्टर में बनाई है, जहां उतार-चढ़ाव ज्यादा होता है. लेकिन अब उन्होंने माना है कि कर्ज को कंट्रोल में लाना ज़रूरी है. आगे की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वो देनदारियों को कितनी अच्छी तरह मैनेज करते हैं.
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