नौकरी की उम्र बीती तो कोई नहीं है सहारा! बात डरावनी लेकिन सच, दिमाग हिला देंगे ये आंकड़े

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नई दिल्ली. भारत आज दुनिया की सबसे युवा आबादी वाला देश है, लेकिन इसी देश में एक ऐसा संकट तेजी से आकार ले रहा है, जो है भारत का रिटायरमेंट संकट. इस पर न सरकार खुलकर बात करती है न आम आदमी गंभीरता से सोचता है. इस संकट की जड़ें गहरी हैं और ये अकेले पेंशन की व्यवस्था से जुड़ी नहीं हैं. बात सिर्फ इतनी नहीं कि लोगों को रिटायरमेंट के बाद पैसा नहीं मिलेगा, असल मसला ये है कि भारत की पूरी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था इस बदलाव के लिए तैयार नहीं है.

बिजनेस टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में जितने भी रिटायरमेंट फंड हैं, उनकी कुल वैल्यू जीडीपी के मुकाबले सिर्फ 3% है. ये आंकड़ा बताता है कि देश के नागरिकों ने अपनी बुजुर्गी के लिए शायद ही कुछ बचाया है. अगर तुलना करें, तो ऑस्ट्रेलिया में ये आंकड़ा 130% है, अमेरिका में 150%, और यूके में 100% के आसपास. भारत जैसे देश में जहां 88% वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में काम करती है, वहां पेंशन जैसी कोई व्यवस्था है ही नहीं.

जरूरत से बहुत कम

सरकार की अटल पेंशन योजना भले ही 7.65 करोड़ लोगों तक पहुंच गई हो और इसमें ₹45,974 करोड़ से ज्यादा जमा हो चुका हो, लेकिन ये राशि उस जरूरत के आगे बहुत कम है, जो करोड़ों लोगों की रिटायरमेंट जरूरतों को पूरा कर सके. EPS-95 स्कीम के तहत भी करीब 78 लाख पेंशनर्स हैं, लेकिन इसकी राशि कई बार न्यूनतम जीवन जीने के लिए भी पर्याप्त नहीं होती. NPS यानी नेशनल पेंशन स्कीम एक अच्छी शुरुआत है, और 2025 तक इसके ग्राहकों की संख्या 1.65 करोड़ तक पहुंच चुकी है. लेकिन ये भी सच है कि ये स्कीम अभी उन तक ठीक से नहीं पहुंच पाई है जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है—असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी, घरेलू महिलाएं, खेतिहर मजदूर और दिहाड़ी कामगार.

बचत बहुत कम

बात यहीं खत्म नहीं होती. आज के भारत में लोग अपने रिटायरमेंट के लिए जितनी बचत कर रहे हैं, वो उनकी आय का केवल 10-12% तक सीमित है, जबकि आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि ये आंकड़ा कम से कम 20-30% होना चाहिए. इस कम बचत के पीछे एक बड़ी वजह है—फाइनेंशियल लिटरेसी की कमी. भारत में सिर्फ 27% वयस्क ऐसे हैं जो बेसिक फाइनेंशियल कॉन्सेप्ट्स समझते हैं. यानी अधिकतर लोग ये नहीं जानते कि रिटायरमेंट फंड कैसे प्लान किया जाता है, कहां निवेश किया जाए, और हेल्थ इंश्योरेंस कितना जरूरी है. चिकित्सा खर्चों की बात करें तो 2025 में भारत में मेडिकल इंफ्लेशन 14% तक पहुंच चुका है, जो पूरे एशिया में सबसे ज्यादा है. स्वास्थ्य बीमा की प्रीमियम दरें भी हर साल 10-15% की रफ्तार से बढ़ रही हैं. ऐसे में अगर कोई रिटायरमेंट के बाद सिर्फ मेडिकल खर्चों के लिए भी कुछ नहीं बचा रहा, तो भविष्य बहुत ही मुश्किल होने वाला है.

इस दिशा में सोचने की क्यों जरूरत

इन सारी आर्थिक चुनौतियों के साथ एक और बड़ा बदलाव हो रहा है—भारत की पारंपरिक संयुक्त परिवार व्यवस्था टूट रही है. शहरीकरण के दौर में अब बुजुर्गों की देखभाल के लिए वो पारिवारिक सपोर्ट सिस्टम नहीं बचा है, जिस पर पहले की पीढ़ियां निर्भर रहती थीं. ऊपर से, 2050 तक देश में 60 साल से ज़्यादा उम्र वाले लोगों की संख्या 34 करोड़ के पार हो जाएगी—यानि हर पांचवां भारतीय बुजुर्ग होगा. इसका सीधा मतलब है कि अगर आज के युवा और सरकार दोनों ने मिलकर मजबूत रिटायरमेंट योजनाएं नहीं बनाईं, तो देश को एक बहुत बड़ी सामाजिक और आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ेगा. कुछ वित्तीय सलाहकारों के मुताबिक, रिटायरमेंट के बाद एक सामान्य और गरिमामयी जीवन जीने के लिए किसी व्यक्ति को कम से कम ₹5 करोड़ का कोष चाहिए होगा, जिससे हर महीने ₹2-2.5 लाख तक की इनकम सुनिश्चित की जा सके. अब सवाल ये है—क्या देश के ज़्यादातर लोग इसके करीब भी हैं?

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