नई दिल्ली. आज चीन दुनिया के 70% रेयर अर्थएलिमेंट्स (REE) खनन और 90% रिफाइनिंग का नियंत्रण रखता है. 1995 में चीन और अमेरिका का आरईई उत्पादन बराबर था, लेकिन 2024 आते-आते चीन का प्रोडक्शन अमेरिका से छह गुना अधिक हो गया. पिछले तीन दशकों में चीन ने रेयर अर्थ एलिमेंट्स (REE) के खनन, प्रसंस्करण और व्यापार में वैश्विक वर्चस्व हासिल कर लिया है. चीन के पास दुनिया का लगभग 44 मिलियन मीट्रिक टन आरईई भंडार है, जो दुनिया में सबसे बड़ा है. भारत, अमेरिका और दक्षिण कोरिया जैसे देश अपने 80% से अधिक REE आयात के लिए चीन पर निर्भर हैं. भारत के पास 6.9 मिलियन मीट्रिक टन का भंडार होने के बावजूद वह चीन पर निर्भर है. आज सारी दुनिया यह जानना चाहती है कि आखिर चीन दुलर्भ धातुओं के व्यापार का बादशाह कैसे बना? कैसे भारत और अमेरिका इस मामले में चीन से हार गए?दरअसल, चीन ने रेयर अर्थ की अहमियत बहुत पहले ही पहचान ली थी. चीन ने 1980 के दशक से ही रेयर अर्थ को रणनीतिक संसाधन के रूप में पहचाना. चीन की सरकार ने इसके खनन और प्रसंस्करण के लिए भारी सब्सिडी, सस्ते ऋण और कर छूट तो दी ही साथ ही, पर्यावरण नियमों में ढील देकर आरईई की सस्ते दामों पर आपूर्ति शुरू कर दी. अमेरिका और अन्य देशों के सख्त पर्यावरण नियमों की वजह से न खनन रफ्तार पकड़ सका न ही वे चीन की तरह सस्ते उत्पाद मुहैया करा पाए. नतीजन प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए. 2010 तक चाइनीज कंपनियों ने अमेरिकी आरईई उद्योग को लगभग खत्म ही कर दिया.
भारत-अमेरिका चीन पर निर्भर
मनीकंट्रोल की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका, भारत, दक्षिण कोरिया जैसे देश अब दुर्लभ धातुओं की आपूर्ति के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं. यूएस जियोलॉजिकल सर्वे (USGS) के आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, जहां चीन ने पिछले 30 वर्षों में इस क्षेत्र में तेज़ी से विकास किया है, वहीं भारत की उत्पादन क्षमता इस दौरान केवल 16 प्रतिशत ही बढ़ सकी. आज चीन इन खनिजों की आपूर्ति पर इतना प्रभाव रखता है कि जब अप्रैल 2024 में उसने निर्यात पर कुछ प्रतिबंध लगाए, तो इसका असर ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स और रक्षा जैसे बड़े वैश्विक उद्योगों पर साफ़ दिखा.
चीन ने ‘डुअल-यूज़’ यानी सैन्य और सामान्य दोनों में उपयोग होने वाली सामग्रियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए निर्यात नियंत्रण लगाए. इसके तहत कंपनियों को निर्यात करने से पहले विस्तृत ‘एंड-यूज़’ दस्तावेज़ देने होते हैं और कई मामलों में तीसरे पक्ष से जांच भी करानी पड़ती है. इसका सीधा प्रभाव वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ा है, जिसमें चीन की भूमिका अब निर्णायक बन चुकी है.
30 साल पहले अमेरिका-चीन का बराबर था उत्पादन
1995 में अमेरिका और चीन, दोनों का REE उत्पादन लगभग बराबर था. लेकिन 2024 तक चीन अमेरिका से छह गुना अधिक उत्पादन करने लगा. 2012 से 2023 के बीच चीन की वैश्विक REE निर्यात में हिस्सेदारी 56.6% से बढ़कर 63% हो गई. इस दौरान भारत, अमेरिका और दक्षिण कोरिया जैसे देशों की चीन पर निर्भरता और भी गहरी हो गई. फिलहाल इन देशों के 80% से अधिक रेयर अर्थ आयात चीन से ही होते हैं.
भारत की स्थिति इस मामले में और भी कमजोर मानी जा रही है. भारत में चीन से आरईई आयात की हिस्सेदारी 2012 में 78.3% थी, जो 2023 में बढ़कर 96.9% हो गई. यानी भारत लगभग पूरी तरह से चीन पर निर्भर हो गया है. सिर्फ कच्चे माल में ही नहीं, चीन डाउनस्ट्रीम इंडस्ट्री जैसे परमानेंट मैग्नेट्स में भी दबदबा रखता है. ये मैग्नेट्स क्लीन एनर्जी, इलेक्ट्रॉनिक्स और रक्षा उपकरणों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
भारत ने पिछले 10 वर्षों में है प्रगति
भारत ने बीते दशक में कुछ प्रगति अवश्य की है. 2013 से 2023 के बीच भारत का REE निर्यात 14 गुना बढ़कर 54 मिलियन डॉलर तक पहुंच गया, लेकिन यह अभी भी चीन के 763 मिलियन डॉलर के निर्यात के मुकाबले बहुत छोटा है. इसका मतलब है कि भारत को अभी लंबा सफर तय करना बाकी है.
भारत बन सकता है आत्मनिर्भर
भारत के पास इस क्षेत्र में भविष्य में आत्मनिर्भर बनने की बड़ी संभावना है. USGS के आंकड़ों के अनुसार, भारत के पास 6.9 मिलियन मीट्रिक टन के ज्ञात आरईई भंडार हैं, जो दुनिया में तीसरे सबसे बड़े हैं. यदि भारत इन संसाधनों का सही दोहन और प्रसंस्करण करने में सक्षम हो पाता है तो वह आने वाले वर्षों में रणनीतिक रूप से अधिक आत्मनिर्भर बन सकता है.
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