Darul Uloom Haqqania: पाकिस्तान में एक धार्मिक स्कूल में आत्मघाती हमले में कम से कम छह लोगों की मौत हो गई है. इसे ‘जिहाद की यूनिवर्सिटी’ कहा जाता है. यह विस्फोट खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में दारुल उलूम हक्कानिया के भीतर स्थित मस्जिद में हुआ था
मरने वालों में स्कूल का प्रमुख हामिद उल हक भी शामिल था, जो तालिबान से जुड़ा हुआ था. यहां से तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर ने भी शिक्षा प्राप्त की हुई है. आइये जानते हैं कि दारुल उलूम हक्कानिया क्या है और इसे क्यों जिहाद की यूनिवर्सिटी कहा जाता है?
1947 में हुई थी स्थापना
दारुल उलूम हक्कानिया उत्तरी शहर पेशावर से लगभग 55 किलोमीटर दूर अकोरा खट्टक में स्थित है. यहां लगभग 4,000 छात्र रहते हैं, जिन्हें मुफ्त में खाना, कपड़े और शिक्षा दी जाती है.इस विद्यालय की स्थापना 1947 में शेख अब्दुल हक ने की थी, जिन्होंने भारत के देवबंद में स्थित दारुल उलूम देवबंद मदरसा से शिक्षा प्राप्त की थी. 1866 में स्थापित यह मदरसा वह स्थान था जहां देवबंदी आंदोलन की शुरुआत हुई थी. इसमें इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ओर लौटने की वकालत की गई थी.
भारत के विभाजन के बाद देवबंदी आंदोलन के अनुयायी पूरे दक्षिण एशिया में फैल गए और उन्होंने इस्लाम की शिक्षा देने वाले मदरसे स्थापित किए. इसी दौरान पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर अब्दुल हक ने दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना की. यह स्कूल जल्द ही क्षेत्र के सबसे प्रसिद्ध धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों में से एक बन गया. यह स्कूल जल्द ही देवबंद विचारधारा का एक महत्वपूर्ण शैक्षणिक केंद्र बन गया.
1988 में हुआ बदलाव
1980 के दशक तक दारुल उलूम हक्कानिया सुर्खियों में नहीं आया था. टीआरटी वर्ल्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, अब्दुल हक की मृत्यु के बाद उनके बेटे समी उल हक ने 1988 में मदरसा की कमान संभाली और जिहाद के विचार को फैलाना शुरू कर दिया है. इसके बाद यहां पर तालिबान नेताओं को प्रशिक्षण दिया गया, जो अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ सके. इसके बाद पाकिस्तान और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों ने इस स्कूल का उपयोग अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण का विरोध करने वाले विद्रोहियों की भर्ती और उनकी ट्रेनिंग के लिए किया.
जानें किस-किस ने की है यहां से पढ़ाई
दारुल उलूम हक्कानिया के पूर्व छात्रों में तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर और हक्कानी नेटवर्क की स्थापना करने वाले जलालुद्दीन हक्कानी हैं. अल-कायदा की दक्षिण एशिया शाखा का नेता रहा आसिम उमर भी इस स्कूल में पढ़ चुका है. वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार, सोवियत संघ के अफ़गानिस्तान से चले जाने के बाद मदरसे ने तालिबान नेताओं के साथ अपने संबंध बनाए रखे, जिन्होंने 1990 के दशक के मध्य में काबुल पर कब्जा कर लिया था.
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2001 में तालिबान सरकार को सत्ता से बेदखल करने में संयुक्त राज्य अमेरिका की मदद के बाद मदरसे ने कई विद्रोही तैयार किए, जिन्होंने अफ़गानिस्तान की अमेरिका समर्थित सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी. इन वजहों से समी उल हक को ‘तालिबान का जनक’ कहा जाने लगा. 2018 में उनकी हत्या के बाद उनके बेटे हामिद उल हक ने मदरसे की कमान संभाली और शुक्रवार को हुए विस्फोट में उनकी मौत हो गई.
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