कौन हैं कर्नाटक की बानू मुश्ताक? जिन्हें हार्ट लैंप के लिए मिला बुकर पुरस्कार

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Banu Mushtaq Won International Booker Prize: बानू मुश्ताक को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाजा गया है. उन्हें मंगलवार (20 मई) की रात दीपा भाष्ति के साथ लंदन में आयोजित समारोह में पुरस्कार मिला है. ये पल कन्नड़ साहित्य, भारतीय भाषाओं, और स्त्री संघर्ष के लिए उत्सव से कम नहीं था. बानू मुश्ताक को हार्ट लैंप के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाजा गया, जो एक लघु कथा संग्रह है. इसमें कर्नाटक की मुस्लिम महिलाओं के जीवन को गहन, संवेदनशील और साहसी दृष्टिकोण से दर्शाया गया है. यह पहली बार है जब किसी लघुकथा संग्रह को यह प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिला है. वह भी कन्नड़ भाषा को अंग्रेजी में  अनुवाद करने पर यह अपने आप में एक ऐतिहासिक क्षण है.
बानू मुश्ताक की पहली कहानी 1950 के दशक में हसन के मिडिल स्कूल में लिखी गई थी. उस समय किसी को अंदाज़ा नहीं था कि यह एक स्वतंत्र विचारधारा की लेखिका के रूप में उनका पहला कदम है. उर्दू माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने मात्र एक महीने में कन्नड़ भाषा सीख ली, जो बाद में उनकी लेखनी की आत्मा बनी. उनके पिता एक सरकारी स्वास्थ्य निरीक्षक थे. उन्होंने ने हमेशा उनकी रचनात्मकता को समर्थन दिया, भले ही परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी.

We’re delighted to announce that the winner of the #InternationalBooker2025 is Heart Lamp by Banu Mushtaq, translated by Deepa Bhasthi.Here’s everything you need to know about the book: pic.twitter.com/tVFxwSGhZo
— The Booker Prizes (@TheBookerPrizes) May 20, 2025

संघर्ष और आत्मसंघर्ष की कहानियांबानू का जीवन केवल लेखनी का नहीं, बल्कि संघर्षों का इतिहास है. विवाह के बाद ससुराल में रूढ़ियों से जूझते हुए उन्होंने एक बार आत्महत्या करने तक की कोशिश की, लेकिन जीवन की पीड़ा ने उन्हें तोड़ा नहीं, बल्कि उनके भीतर लिखने की आग को और तेज करने का काम किया. उनकी कहानियां हमेशा उन महिलाओं की आवाज़ बनीं, जिन्हें धर्म, समाज और राजनीति ने आज्ञाकारी बनाकर दबा दिया था. इस पर बानू मुश्ताक कहती है कि मेरी कहानियां उन महिलाओं के बारे में हैं, जो बिना सवाल पूछे आदेश मानने को मजबूर की जाती हैं.
कहानियां जो जीवन से फूटती हैं‘हार्ट लैंप’ सिर्फ कहानियों का संग्रह नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जिसमें 30 वर्षों में लिखी गई 12 कहानियां शामिल हैं. यह संग्रह उन स्त्रियों का दस्तावेज है, जिन्हें समाज ने हाशिए पर डाल दिया. दीपा भाष्ति ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है, जो एक अनूठी भाषा-शैली के साथ प्रस्तुत किया गया, जिसे जूरी ने अंग्रेजी की बहुलता में एक नई बनावट करार दिया है. जूरी अध्यक्ष मैक्स पोर्टर ने कहा कि यह संग्रह महिलाओं के जीवन, प्रजनन अधिकारों, आस्था, जाति, शक्ति और उत्पीड़न के बारे में बात करता है.
आंदोलनों से जुड़ाव और साहित्यिक सक्रियता1970 का दशक बानू के लिए क्रांति का समय था. दलित आंदोलन, भाषा आंदोलन, और महिला संघर्षों ने उनके विचारों को तेज किया. उन्होंने लंकेश पत्रिके जैसे क्रांतिकारी प्रकाशन से जुड़कर लेखन को आंदोलन से जोड़ा. उनकी कहानियों पर आधारित फ़िल्म ‘हसीना’ ने 2004 में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता. इसके साथ ही, उन्होंने कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई सम्मान अर्जित किए.
चाकू से हमला और सामाजिक बहिष्कार2000 के दशक में मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश की वकालत करने पर उन्हें कट्टरपंथियों का शिकार बनना पड़ा. तीन महीने का सामाजिक बहिष्कार, धमकियां और चाकू से हमला किया गया. इन सबके बावजूद उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया.

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